Himachal History in Hindi Best GK Online 2023
राजधानी | शिमला |
सबसे बड़ा शहर | शिमला |
जनसंख्या | 68,64,604 (2011) |
राजभाषा | हिंदी, संस्कृत |
गठन | 25 जनवरी 1971 |
राज्यपाल | शिव प्रताप शुक्ला (13 फरवरी 2023 से ) |
मुख्यमंत्री | सुखविंदर सिंह सुक्खू (वर्तमान ) |
विधानमंडल | एक मण्डलीय |
विधानसभा | 68 सीट |
लोकसभा सीटें | 04 |
राज्यसभा सीटें | 03 |
उच्च न्यायालय | हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय शिमला |
राजकीय पशु | बर्फीला तेंदुआ |
राजकीय वृक्ष | देवदार |
राजकीय पुष्प | गुलाबी बुरांश |
राजकीय पक्षी | जाजुराना |
प्रथम राज्पाल | एस चक्रवर्ती ICS |
प्रथम मुख्यमंत्री | यशवंत सिंह परमार |
प्रथम मुख्यन्यायधीश | मिर्ज़ा हमीदुल्ला बेग |
प्रथम महिला मुख्य न्यायाधीश | लीला सेठ |
प्रथम अध्यक्ष हिमाचल प्रदेश लोक सेवा आयोग | एस कटोच |
प्रथम अध्यक्ष हिमाचल प्रदेश अधीनस्थ सेवाएं चयन बोर्ड | के सी मल्होत्रा |
प्रथम विधानसभा अध्यक्ष | जयंत राम |
महिलाप्रथम विधानसभा अध्यक्ष | विद्या स्टोक्स |
प्रथम विधानसभा उपाध्यक्ष | कृष्ण चंद्र |
प्रथम मुख्य सचिव | केएल मेहता |
हिमाचल प्रदेश का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना कि मानव अस्तित्व का अपना इतिहास है। हिमाचल प्रदेश का इतिहास उस समय से लिया जाता है, जब सिंधु घाटी सभ्यता विकसित हुई थी। इस बात की सत्यता के प्रमाण हिमाचल प्रदेश के विभिन्न भागों में हुई खुदाई से प्राप्त सामग्रियों से मिली है। प्राचीन काल में इस प्रदेश के आदि निवासी दास,दस्यु निषाद के नाम से जाने जाते थे।
हिमाचल प्रदेश का इतिहास जाने के लिए सबसे पहले ऐतिहासिक स्त्रोतों के बारे में जाना आवश्यक है। उसके बाद प्राचीन इतिहास, मध्यकालीन इतिहास और आधुनिक इतिहास के बारे में भी पढ़ेंगे।
ऐतिहासिक स्त्रोत
हिमाचल प्रदेश के इतिहास में प्राचीन काल के सिक्कों, शिलालेख, साहित्य, यात्रा वृतांत और वंशावलियों के अध्ययन के द्वारा हम जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। जो कि सीमित यात्रा में उपलब्ध है। इसका विवरण निम्नलिखित ढंग से किया गया है।
सिक्के
हिमाचल प्रदेश में सिक्कों की खोज का काम हिमाचल प्रदेश राज्य संग्रहालय की स्थापना के बाद गति पकड़ने लगा था। भूरी सिंह म्यूजियम और राज्य संग्रहालय शिमला में त्रिगर्त, औदुम्बर, कुलुटा और कुणिंद राजवंशो के सिक्के रखे गए थे। शिमला राज्य संग्रहालय में रखे 12 सिक्के अर्की से प्राप्त हुए हैं। अपोलोडोटस के 21 सिक्के हमीरपुर के टंपामेवा गांव से प्राप्त हुए हैं। चंबा के लचोरी और सरोल में हइंडो -ग्रीक के कुछ सिक्के प्राप्त हुई है। कुल्लू का सबसे पुराना सिक्का राजा विर्यास द्वारा पहली सदी में चलाया गया था।
शिलालेख/ ताम्र पत्र
कांगड़ा के पथयार और कनिहारा के अभिलेख, हाटकोटी में सुनपुर की गुफा के शिलालेख, मंडी के सलोनु के शिलालेख द्वारा हम हिमाचल प्रदेश के प्राचीन समय की सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। भूरी सिंह म्यूजियम चंबा में चंबा से प्राप्त 36 अभिलेखों को रखा गया है जो कि शारदा और टांकरी लिपि में लिखे हुए हैं। कुल्लू के शलारू अभिलेखों से गुप्त काल की जानकारी प्राप्त होती है।
साहित्य
रामायण और महाभारत के अलावा ऋग्वेद में हिमालय में निवास करने वाली जनजातियों का विवरण मिलता है। तारीख ए फिरोजशाही और तारीख ए फरिश्ता में नगरकोट के किले पर फिरोजशाह तुगलक के हमले का प्रमाण मिलता है। तूजुक ए जहांगीरी में जहांगीर के कांगड़ा आक्रमण का प्रमाण मिलता है। तुजुक ए तैमूरी से तैमूर लंग के शिवालिक पर आक्रमण की जानकारी प्राप्त होती है।
यात्रा वृतांत
हिमाचल प्रदेश का सबसे पुरातन विवरण टॉलमी ने किया है। इसमें कुलिंदो का वर्णन मिलता है। चीनी यात्री हेनसॉन्ग 630 से 648 AD तक भारत में रहा। इस दौरान वह कुल्लू और त्रिगर्त भी आया था। थॉमस कोरयाट और विलियम फिंच ने औरंगजेब के समय हिमाचल की यात्रा की। फॉस्टर में 1783 ईस्वी, विलियम मूरक्राफ्ट ने 1820-22, मेजर आर्चर ने 1829 के यात्रा वृतांतो के बारे में लिखा।
वंशावलियाँ
वंशावलियों की तरफ सर्वप्रथम विलियम मूरक्राफ्ट ने काम किया और कांगड़ा के राजाओं की वंशावलीया खोजने में सहायता की। कैप्टन हारकोर्ट ने कुल्लू की वंशावली प्राप्त की। बाद में कनिघम ने कांगड़ा, चंबा, मंडी, सुकेत और नूरपुर राजघरानों की वंशावलियाँ खोजी।
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प्राचीन इतिहास
प्रागैतिहासिक काल
मारकंडा और सिरसा-सतलुज घाटी में पाए गए औजार 40 हज़ार वर्ष पुराने हैं। हिमाचल प्रदेश का प्रागैतिहासिक काल में मध्य एशिया से आर्य तथा भारत के मैदानी इलाकों से पहाड़ों पर लोगों के बसने का इतिहास प्रस्तुत करता है। भारत के मैदानों से होकर आकर बसने वाले लोगों से पहले कोल जिन्हें आज कोली, हाली, डोम और चनाल कहा जाता है। संभवत हिमाचल के प्राचीनतम निवासी है।
वैदिक काल और खस
ऋग्वेद में हिमाचल प्रदेश के प्राचीन निवासियों का दस्यु, निषाद और दशास के रूप में वर्णन मिलता है। दस्यु राजा शांबर के पास यमुना से ब्यास के बीच की पहाड़ियों में 99 किले थे। दस्यु राजा शाम्भर और आर्य राजा दीबोदास के बीच 40 वर्षों तक युद्ध हुआ। अंत में दिवोदास ने उदव्रज नामक स्थान पर शांबर का वध कर दिया।
मंगोलयाड जिन्हे भोट और किरात के नाम से जाना जाता है , हिमाचल में बसने वाली दूसरी प्रजाति बन गई। आर्य और खस हिमाचल प्रदेश में बसने वाली तीसरी प्रजाति थी। खसो के सरदार को मवाना कहा जाता था।ये लोग खुद को क्षत्रिय मानते थे। समय के साथ खस समूह जनपदों में बदल गए। वैदिक काल में पहाड़ों पर आक्रमण करने वाले दूसरे आर्य राजा सहस्त्रार्जुन थे जिनका जमदग्नि ऋषि के पुत्र परशुराम ने वध कर दिया था।
महाभारत काल और जनपद
महाभारत काल के समय त्रिगर्त के राजा सुशर्मा ने महाभारत के युद्ध में कौरवो की सहायता की थी। कश्मीर, औदुम्बर और त्रिगर्त के शासक युधिष्ठिर को कर देते थे। कुल्लू की कुलदेवी राक्षसी देवी हिडिम्बा का विवाह भीम से हुआ था। महाभारत में 4 जनपदों का वर्णन इस प्रकार से मिलता है।
औदुंबर
महाभारत के अनुसार औदुम्बर विश्वामित्र केवंशज थे, जो कौशिक गौत्र से सम्बंधित थे। काँगड़ा, पठानकोट, गुरुदासपुर और होशियारपुर आदि क्षेत्रो में औदुम्बर राज्य के सिक्के मिले थे। पाणिनि के गनपथ में भी औदुम्बर जाति का वर्णन मिलता है। औदुम्बर वृक्ष की अधिक्तता केकारण यह जनपद औदुम्बर कहलाया
त्रिगर्त
त्रिगर्त जनपद की स्थापना 8वी BC से 5वी BC के बीच सुशर्म चंद्र द्वारा की गयी।
सुशर्म चंद्र ने महाभारत के युद्ध में कौरवों की सहायता की थी। त्रिगर्त रावी, सतलुज और व्यास नदियों के बीच का भाग था। सुशर्म चंद्र ने कांगड़ा किला बनाया और नगरकोट को अपनी राजधानी बनाया।
कुल्लुत
कुल्लुत राज्य व्यास नदी के ऊपर का इलाका था। इसकी प्राचीन राजधानी नगर थी। कुल्लू घाटी में राजा विर्यास के नाम से 100 ईस्वी का सबसे पुराना सिक्का मिलता है। इस पर प्राकृत और खरोष्ठी भाषा में लिखा हुआ मिलता है। कुल्लू रियासत की स्थापना प्रयाग( इलाहबाद ) से आये विहंग मणिपाल ने की थी।
कुलिंद
महाभारत के अनुसार कुलिंद पर अर्जुन ने विजय प्राप्त की थी। कुलिंद रियासत व्यास, सतलुज और यमुना के बीच की भूमि थी। जिसमें सिरमौर, शिमला अंबाला और सहारनपुर के क्षेत्र शामिल थे। वर्तमान समय में कुनैत या कनैत का संबंध कुलिंद से माना जाता है। यमुना नदी का पौराणिक नाम कालिंदी है और इसके साथ-साथ पर पड़ने वाले क्षेत्र को कुलिंद कहा जाता है।
सिकंदर का आक्रमण
सिकंदर ने 326 बीसी के समय भारत पर आक्रमण किया और व्यास नदी के तट पर पहुंच गया था। सिकंदर का सेनापति कोइनोस था। सिकंदर ने व्यास नदी के तट पर अपने भारत अभियान की निशानी के तौर पर सपूतों का निर्माण करवाया था, जो अब नष्ट हो चुके हैं।
मौर्य काल
सिकंदर के आक्रमण के पश्चात चंद्रगुप्त मौर्य ने भारत में एक विशाल राज्य की स्थापना की थी। कुलिंद राज्य को मौर्य काल में शीरमौर्य कहा गया क्योंकि कुलिंद राज्य मौर्य राज्य के शीर्ष पर था। कालांतर में शीरमौर्य सिरमौर बन गया। चंद्रगुप्त मौर्य के पोते अशोक ने मझिम्म और 4 बौद्ध भिक्षुओ को हिमालय में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भेजा था।
मौर्योत्तर काल
मौर्यो के पतन के बाद शुंग वंश पहाड़ी गणराज्यों को अपने अधीन नहीं रख पाए और वह स्वतंत्र हो गए। इसा पूर्व प्रथम शताब्दी के आसपास शको का आक्रमण शुरू हुआ। शको के बाद कुषाणों के सबसे प्रमुख राजा कनिष्क के शासन काल में पहाड़ी राज्यों में समर्पण कर दिया और उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।
गुप्त काल
गुप्त साम्राज्य की नीव चंद्र गुप्त प्रथम के दादा श्री गुप्त ने की। समुद्र गुप्त जिसे भारत का नेपोलियन जाता था। जो इस वंश का सबसे प्रतापी राजा हुआ।
हूण
गुप्तवंश की समाप्ति का मुख्य कारण हूणों का आक्रमण था। हूणों का प्रमुख राजा तोरमाण और उसका पुत्र मिहिरकुल था। गुज्जर और गद्दी स्वयं को हूणों के वंशज मानते है।
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मध्यकालीन इतिहास
महमूद गज़नबी :- महमूद गज़नबी ने भारत पर 17 बार आक्रमण किये थे। महमूद गजनबी 1023 तक नगरकोट को छोड़कर काँगड़ा के अधिकतर हिस्सों पर अधिकार नहीं कर पाया था। त्रिलोचन पाल और उसके पुत्र भीम पल की मृत्यु के उपरांत 1026 ईस्वी में तुर्को के अधीन काँगड़ा आया।
तुगलक-
मुहम्मद बिन तुगलक – मुहम्मद बिन तुगलक (1325 – 1351) ने 1337 ईस्वी में नगरकोट के राजा पृथ्वीचंद को पराजित करने के लिए सेना भेजी थी जिसका उसने स्वयं नेतृत्व किया।
फिरोजशाह तुगलक –
फिरोजशाह तुगलक (1351 -1388) ईस्वी ने काँगड़ा के राजा रूपचन्द को सबक सिखाने के लिए 1361 ईस्वी में नगरकोट पर आक्रमण करके घेरा डाला। राजा रूपचन्द और फिरोजशाह तुगलक का बाद में समझौता हो गया और नगरकोट पर से घेरा उठा लिया गया। रूपचन्द ने फिरोजशाह तुगलक की अधीनता स्वीकार कर ली।
तैमूरलंग का आक्रमण –
1398 ईस्वी में मंगोलो का आक्रमण तैमूरलंग के नेतृत्व में हुआ। तैमूरलंग के आक्रमण के समय काँगड़ा का राजा मेघचन्द था। तैमूरलंग के आक्रमण के समय हिन्डूर (नालागढ़) का शासक आलमचंद था जिसने तैमूरलंग की सहायता की जिसके परिणामसवरूम तैमूरलंग ने हिन्डूर को हानि पहुँचाये बिना ही आगे बढ़ गया।
मुग़ल शासन –
बाबर – बाबर ने 1525 में काँगड़ा निकट मलौट में अपनी चौकी स्थापित की। बाबर ने 1526 ईस्वी में पानीपत के प्रथम युद्ध में इब्राहम लोधी को हराकर भारत में मुग़ल शासन की नीव डाली।
अकबर –
अकबर ने 1526 ईस्वी में सिकंदर शाह को पकड़ने के लिए नूरपुर में अपनी सेना भेजी क्यूँकि नूरपूर के राजा भगतमल की सिकंदर शाह से दोस्ती थी। अकबर पहाड़ी राजाओ को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए उनके बच्चों या रिश्तेदारों को दरबार में बन्धक के तौर पर रखता था। अकबर ने काँगड़ा के राजा जयचंद को बंधक बनाया। जयचंद के पुत्र विधिचंद ने अकबर के विरुद्ध नूरपुर के राजा तख्तमल के साथ मिलकर विद्रोह किया। अकबर ने बीरबल को हुसैन कुली खान के साथ मिलकर इस विद्रोह को दबाने के लिए भेजा। अकबर ने 1572 ईस्वी में टोडरमल को पहाड़ी रियासतों की जमीने लेकर एक शाही जमींदारी स्थापित करने के लिए नियुक्त किया।
जहाँगीर –
जंहागीर 1605 ईस्वी में गद्दी पर बैठा। काँगड़ा के राजा विधिचंद की 1605 ईस्वी में मृत्यु हुई और उसका पुत्र त्रिलोकचंद गद्दी पर बैठा। जहाँगीर ने 1615 ईस्वी में काँगड़ा पर कब्ज़ा करने के लिए नूरपुर (धमेरी) के राजा सूरजमल और शेख फरीद मुर्तजा खान को भेजा परन्तु दोनों में विवाद होने और मुर्तजा की मृत्यु होने के बाद काँगड़ा किले पर कब्ज़ा करने की योजना को स्थगित कर दिया गया।
जहाँगीर ने 1617 ईस्वी में फिर नूरपुर के राजा सूरजमल और शाह कुली खान मुहम्मद तकी के नेतृत्व में काँगड़ा विजय के लिए सेना भेजी। राजा सूरजमल और शाह कुली खान में झगड़ा हो जाने के कारन कुली खान को वापिस बुला लिया गया। राजा सूरजमल ने मुग़लो के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। जहाँगीर ने सूरजमल के विद्रोह को दबाने के लिए राजा रे विक्रमजीत और अब्दुल अजीज को भेजा। राजा सूरजमल ने मनकोट और तारागढ़ किले में शरण ली जो चम्बा रियासत के अधीन था।
शाहजहाँ –
शाहजहाँ के शासनकाल में नवाब असदुल्ला खान और कोच कुलीख़ाँ काँगड़ा किले के मुग़ल किलेदार बने। कोच कुलीखान 17 वर्षो तक मुग़ल किलेदार रहा। उसे बाण गंगा नदी के पास दफनाया गया था। सिरमौर का राजा मान्धाता प्रकाश शाहजहां का समकालीन था। उसने मुगलो के गढ़वाल अभियान मे कई बार मदद की थी।
औंरगजेब –
औरंगजेब के शासनकाल में काँगड़ा किले के मुग़ल किलेदार सैयद हुसैन खान, हसन अब्दुल्ला खान और नवाब सैयद ख़लीलुला खान थे। औरंगजेब का समकालीन सिरमौर का राजा सुभंग प्रकाश था। चम्बा के राजा चतर सिंह ने 1678 ईस्वी में औरंगजेब के चम्बा के सभी हिन्दू मंदिरो को नष्ठ करने के आदेश को मना कर दिया था।
मुगलों का पतन और घमण्डचंद-
औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगलो का पतन शुरू हो गया। अहमदशाह दुर्रानी ने 1748 से 1788 ईस्वी के बीच 10 बार पंजाब पर आक्रमण करके मुगलों की कमर तोड़ दी। राजा घमंड चंद ने इस मौके का फायदा उठाकर काँगड़ा और दोआब के क्षेत्रो पर कब्ज़ा कर लिया। काँगड़ा किला अभी मुगलो के पास था। नवाब सैफ अली खान काँगड़ा किले अंतिम किलेदार थे। अहमद शाह दुर्रानी ने 1759 ईस्वी में घमंड चंद को जालन्धर दोआब का नाजिम बना दिया। घमंड चंद का सतलुज से रावी तक के क्षेत्र पर एकछत्र राज हो गया।
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आधुनिक इतिहास
सिख :-
गुरुनानक देव जी ने काँगड़ा, ज्वालामुखी, कुल्लू , सिरमौर और लाहुल -स्पीति की यात्रा की। पाँचवे सिख गुरु अर्जुन देव जी ने पहाड़ी राज्यों में भाई कलियाणा को हरमिंदर साहिब (स्वर्ण मंदिर )के निर्माण के लिए चंदा इकट्ठा करने के लिए भेजा। छटे गुरु हरगोविंद जी ने बिलासपुर (कहलूर ) के राजा की तोहपे में दी गयी भूमि पर किरतपुर का निर्माण किया। नवें सिख गुरु तेग बहादुर जी ने कहलूर (बिलासपुर )से जमीं लेकर मखोवाल गाँव की स्थपना की जो बाद में आंनदपुर साहिब कहलाया।
गुरु गोविन्द सिंह जी –
गुरु गोविन्द सिंह जी और कहलूर के राजा भीम चंद के बीच सफ़ेद हाथी को लेकर मनमुटाव हुआ। जिसे आसाम की रानी ने दिया था। गुरु गोविन्द सिंह जी 5 वर्षो तक पौंटा साहिब में रहे और दशम ग्रन्थ की रचना की। गुरु गोविन्द सिंह और कहलूर के राजा भीमचंद , उसके समधी ग़ढवाल के फतेहशाह और हण्डूर के राजा हरी चंद के बीच 1686 ईस्वी में भगाणी साहिब का युद्ध लड़ा गया। जिसमे गुरु गोविन्द सिंह ही विजयी रहे।
हण्डूर (नालागढ़) के राजा हरि चंद की मृत्यु गुरु गोविंद सिंह के तीर से हो गई. युद्ध के बाद गुरु गोविंद सिंह ने हरि चंद के उत्तराधिकारी को भूमि लौटा दी और भीमचंद (कहलूर ) के साथ भी उनके संबंध मधुर हो गए. राजा भीम चंद ने मुगलों के विरुद्ध गुरु गोविंद सिंह से सहायता मांगी। गुरु गोविंद सिंह ने नादौन में मुगलों को हराया। गुरु गोविंद सिंह ने मंडी के राजा सिद्ध सेन के समय मंडी और कुल्लू की यात्रा की. गुरु गोविंद सिंह ने 13 अप्रैल 1699 ईस्वी को बैसाखी के दिन आनंदपुर साहिब( मकोवाल) में 80,000 सैनिकों के साथ खालसा पंथ की स्थापना की। गुरु गोविंद सिंह जी ने 1708 ईस्वी में नांदेड़ (महाराष्ट्र ) में मृत्यु हो गई। बंदा बहादुर की मृत्यु के बाद सिख़ 12 मिसलों में बंट गए।
काँगड़ा किला, संसार चंद, गोरखे और महाराजा रणजीत सिंह:-
राजा घमंड चंद ने जस्सा सिंह रामगढ़िया को हराया। काँगड़ा की पहाड़ियों पर आक्रमण करने वाला पहला सिख जस्सा सिंह रामगढ़िया था। घमंड चंद की मृत्यु के पश्चात् संसार चंद द्वितीय ने 1782 ईस्वी में जय सिंह कन्हैया की सहायता से मुगलो से काँगड़ा किला छीन लिया। जय सिंह कन्हैया ने 1783 ईस्वी में काँगड़ा किला अपने कब्जे में लेकर संसार चंद को देने से मना कर दिया। जय सिंह कन्हैया ने 1785 ईस्वी में संसार चंद को काँगड़ा किला लौटा दिया।
संसार चंद :-

संसार चंद द्वितीय काँगड़ा का सबसे शक्तिशाली राजा था। वह 1775 ईस्वी काँगड़ा का राजा बना। उसने 1786 ईस्वी में नेरटी शाहपुर युद्ध में चम्बा के राजा को हराया। 1786 से 1805 ईस्वी तक का कार्यकाल संसार चाँद के लिए स्वर्णिम कार्यकाल था। उसने 1787 ईस्वी में काँगड़ा के किले पर कब्ज़ा किया। संसार चंद ने 1794 ईस्वी में कहलूर ( बिलासपुर ) पर आक्रमण किया। यह आक्रमण उसके पतन की शुरुआत बना। कहलूर के राजा ने पहाड़ी राजा के संघ के माध्यम से गोरखा कमांडर अमर सिंह थापा को राजा संसार चंद को पराजित करने की आमंत्रित किया।
गोरखे :-
गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने 1804 ईस्वी तक कुमांयू, गढ़वाल,सिरमौर, तथा शिमला की 30 पहाड़ी रियासतों पर कब्ज़ा कर लिया था। 1806 ईस्वी को अमर सिंह थापा ने महलमोरियो ( हमीरपुर ) नमक स्थान में संसार चंद को पराजित किया। संसार चंद ने काँगड़ा क़िले में शरण ली, वह वंहा 4 साल तक रहा। अमर सिंह थापा ने 4 वर्षो तक लगातार घेरा डाले रखा। संसार चंद ने 1809 में ज्वालामुखी जाकर महाराज रणजीत सिंह से मदद मांगी। दोनों के बीच में 1809 ईस्वी में ज्वालामुखी की संधि हुई।
महाराजा रणजीत सिंह :-

1809 ईस्वी में महाराजा रणजीत सिंह ने गोरखों पर आक्रमण कर अमर सिंह थापा को हरा दिया और सतलुज के पूर्व धकेल दिया। संसार चंद ने महाराजा रणजीत सिंह को 66 गाँव और कांगडा किला सहायता में बदले में दिया दिया। देसा सिंह मजीठिया को कांगडा किला और कांगडा का नाज़िम 1809 इस्वी में महाराजा रणजीत सिंह ने बनाया। महाराजा रणजीत सिंह ने 1813 इस्वी में हरिपुर ( गुलेर) बाद में नूरपुर और जसवा को अपने अधिकार में ले लिया। 1818 में दातारपुर, 1825 में कूटलहर को हराया।
वर्ष 1823 में संसार चंद की मृत्यु के बाद अनिरुद्ध चंद को ₹1 लाख के नजराणा के एब्स में गद्दी पर बैठाने दिया गया। अनिरुद्ध चंद ने रणजीत सिंह को अपनी बेटी का विवाह जम्मु के राजा ध्यान सिंह के पुत्र से करने से मना कर दिया, और अंग्रेजों से शरण माँगी। 1839 ईस्वी में वेंचुरा के नेतृत्व में एक सेना मंडी और दूसरी सेना कुल्लू भेजी गई। महाराजा रणजीत सिंह की 1839 ईस्वी में मृत्यु के पश्चात् सिक्खों का पतन शुरू हुआ।
अंग्रेज ( ब्रिटिश)
ब्रिटिश और गोरखे:- गोरखो ने कहलूर के राजा महान चंद के साथ मिलकर 1806 मे संसार चंद को हराया। अमर सिंह थापा ने 1809 ईस्वी मे भागल रियासत के राणा जगत सिंह को भगाकर अर्की पर कब्जा कर लिया। अमर सिंह थापा ने अपने बेटे रणजौर सिंह को सिरमौर पर आक्रमण करने के लिए भेजा। राजा कर्म प्रकाश (सिरमौर) ने ” भूरिया “(अम्बाला) भागकर जान बचाई। नाहन और जातक किले पर गोरखो का कब्जा हो गया। 1810 ईस्वी मे गोरखो ने हिन्डूर, जुब्बल, और पंड्रा क्षेत्रो पर कब्जा कर लिया। अमर सिंह थापा ने बुशहर रियासत पर 1811 ईस्वी मे आक्रमण किया। अमर सिंह थापा 1813 ईस्वी तक रामपुर मे रहा उसके बाद अर्की वापिस लौट गया।
गोरखो और ब्रिटिश हितों का टकराव :-
1813 ईस्वी में अमर सिंह थापा ने सरहिंद के छः गाँव पर कब्जा करना चाहा जिसमें से दो गाँव ब्रिटिश सिक्खों के अधीन थे। इससे दोनों में विवाद बढ़ा। दुसरा ब्रिटिश के व्यापारिक हितों के आगे गोरखे आने लगे थे। क्योंकि तिब्बत से उनका महत्वपूर्ण व्यापार होता था। गोरखो ने तिब्बत जाने वाले लगभग सभी दर्रो एव्ं मार्गों पर कब्जा कर लिया था। इसीलिए गोरखा- ब्रिटिश युद्ध अनिवार्य लगने लगा था। अंग्रेजों ने 01 नवंबर 1814 की घोषणा कर दी।
गोरखा- ब्रिटिश युद्ध:-
मेजर जनरल डेविड ऑक्टर्लोनी और मेजर जनरल रोलो गिलेसपी के नेतृत्व में अँग्रेजों ने गोरखो के विरुद्ध युद्ध लड़ा। मेजर गिलेसपी 4400 सैनिकों के साथ गोरखा सेना को कलिंग के किले में हराया, जिसका नेतृत्व बलभद्र सिंह थापा कर रहे थे। अमर सिंह थापा के पुत्र रणजौर सिंह ने नाहन से जातक किले में जाकर अंग्रेजी सेना को भारी क्षति पहुँचाई। अंग्रेजों ने बिलासपुर के सरदार के साथ मिलकर कंदरी से नाहन तक सड़क बनवाई। अँग्रेजों ने 16 जनवरी 1815 को डेविड औक्टरलोनी के नेतृत्व में अर्की पर आक्रमण किया। अमर सिंह थापा मलौण किले चला गया, जिससे तारागढ़ और रामगढ़ के किले पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया।
गोरखा पराजय:-
जुब्बल रियासत में अंग्रेजों ने डांगी वज़ीर और प्रिमू के साथ मिलकर 12 मार्च 1815 को चौपाल में 100 गोरखो को हथियार डालने पर विवश किया। चौपाल जीतने के बाद रोबिनगढ किले, जिस पर रणजौर सिंह थापा का कब्जा था, अंग्रेजों ने आक्रमण किया। टिकम दास, बदरी और डांगी वज़ीर के साथ बुशहर रियासत की सेनाओं ने अंग्रेजों के साथ मिलकर गोरखों को रवीनगढ़ के किले से भगा दिया।
रामपुर, कोटगढ में और कुल्लू की संयुक्त सेनाओं ने सारान- का- टिब्बा के पास गोरखो को हथियार डालने पर मजबूर किया। हिन्डूर के राजा राम शरण और कहलूर के राजा के साथ मिलकर अंग्रेजों ने मोर्चा बनाया।अमर सिंह थापा को रामगढ़ से भागकर मलौण किले में शरण लेनी पड़ी। भक्ति थापा जो गोरखो का बहादुर सरदार था की मृत्यु होने से गोरखों को भारी क्षति हुई। कुमाऊँ की हार और उसके सैनिकों की युद्ध करने की अनिच्छा ने अमर सिंह थापा को हथियार डालने पर मजबूर किया।
सुगौली की संधि

अमर सिंह थापा ने अपने और अपने पुत्र रणजौर सिंह जो कि जातक किले की रक्षा कर रहा था, के सम्मानजनक और सुरक्षित घर वापसी के लिए 28 नवम्बर 1815 ईस्वी को ब्रिटिश मेजर जनरल डेविड ऑक्टरलोनी के साथ सुगौली की संधि और हस्ताक्षर किये। इस संधि के अनुसार गोरखो को अपनी निजी संपत्ति के साथ वापस सुरक्षित नेपाल जाने का रास्ता प्रदान किया गया।
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ब्रिटिश और पहाड़ी राज्य:-
अंग्रेजों ने पहाड़ी रियासतों से किये वादों का पूर्ण रूप से पालन नहीं किया। राजाओं को उनकी गद्दीयां तो वापस दे दी। लेकिन महत्वपूर्ण स्थानों पर अपना अधिकार बनाए रखा। अंग्रेजों ने उन रियासतों पर भी कब्जा कर लिया जिनके राजवंश समाप्त हो गए या जिनमें उत्तराधिकारी के लिए झगडा था। पहाड़ी शासकों को युद्ध खर्चे के तौर पर भारी धनराशि अंग्रेजों को देने पड़ते थे। अंग्रेजों ने प्लासी में 20 शिमला पहाड़ी राज्यों की बैठक बुलाई ताकि गोरखो से प्राप्त क्षेत्रों का बटवारा किया जा सके।
बिलासपुर, कोटखाई, भागल और बुशहर को 1815 से 1819 सनद प्रदान की गयी। कुमासेन, बाल्संन, थरोच, कुठार, मांगल, धामी को स्वतंत्र सनदे प्रदान की गई। खनेठी और देलथ बुशहर राज्य को दे दी गई, जबकि कोठी, घुन्ड, ठियोग मधान और रतेश क्योंथल राज्य को दे दी गयी।सिखों के खतरे के कारण बहुत से राज्यों ने अंग्रेजों की शरण ली। नूरपुर के राजा बीर सिंह ने शिमला और सबाथु छावनी ( अंग्रेजों की) मे शरण ली। बलवीर सेन मंडी के राजा ने रणजीत सिंह के विरुद्ध मदद के लिए सबाथू के पॉलिटिकल एजेंट कॉर्नल टफ्फ को पत्र लिखा। बहुत से पहाड़ी राज्यों ने अंग्रेजों की सिखों के विरुद्ध मदद भी की।
गुलेर के शमशेर सिंह, नूरपुर के बीर सिंह, कुठलहर के नारायण पाल ने सिखो को अपने इलाके से खदेड़ा। महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद 9 मार्च 1846 की लाहौर संधि के बाद सतलुज और व्यास के क्षेत्रों पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। 1846 ईस्वी तक अंग्रेजों ने कांगडा, नूरपुर, जास्वांन, दातारपुर, मंडी, सुकेत, कुल्लू और लाहौल स्पिति को पूर्णतः अपने कब्जे में ले लिया।